शिक्षा, शिक्षण विधि और शिक्षक का कर्तव्य…

प्रिय विद्यार्थियों,
स्नेहिल शुभकामनाएं…

आप आज शिक्षक दिवस मना रहे हैं। दिवसों की भीड़ में एक और दिवस। कहने को मैं आपका शिक्षक हूं, किंतु सच तो यह है कि जाने-अनजाने न जाने कितनी बार मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है। कभी किसी के तेजस्वी आत्मविश्वास ने मुझे चमत्कृत कर‍ दिया तो कभी किसी विलक्षण अभिव्यक्ति ने अभिभूत कर दिया। कभी किसी की उज्ज्वल सोच से मेरा चिंतन स्फुरित हो गया तो कभी सम्मानवश लाए आपके नन्हे से उपहार ने मुझे शब्दहीन कर‍ दिया।

कक्षा में अध्यापन के अतिरिक्त जब मैं स्वयं को उपदेश देते हुए पाता हूं तो स्वयं ही लज्जित हो उठता हूं। मैं कौन हूं? क्यों दे रहा हूं ये प्रवचन? आप लोग मुझे क्यों झेल रहे हैं?

यही प्रश्न संभवत: आपके मानस में भी उठते होंगे। सर क्यों परेशान हो रहे हैं? उन्हें क्या करना है? वे अपना विषय पढ़ाएं और चले जाएं। आपकी गलती नहीं है, पर गलत मैं भी नहीं हूं। कल तक मैं भी बैंच के उस पार हुआ करता था। आज सौभाग्यवश इस तरफ हूं। उस पार रहकर अक्सर कुछ प्रश्न मेरे मन को मथते रहे हैं।

क्या शिक्षक मात्र किताबों में प्रकाशित विषयवस्तु को समझाने का ‘माध्यम भर’ है? क्यों शिक्षक अपने विद्यार्थियों से मात्र रटी हुई पाठ्‍यसामग्री को ही प्रस्तुत करने की अपेक्षा रखता है?

विद्यार्थियों के मौलिक चिंतन, प्रखर प्रश्नों व रचनात्मक सोच का क्या इस शिक्षा पद्धति में कोई स्थान नहीं? हमारी शिक्षा प्रणाली की यह विडंबना क्यों है? पुस्तकों में छपा हुआ ही ब्रह्मसत्य है? चाहे वह कितना ही अप्रासंगिक हो। वही, शाही फरमान है? शिक्षकों को कक्षा में उसे ही पढ़ देना है और विद्या‍र्थियों को रटकर वही उत्तर पुस्तिका में लिख देना है?

और जाने-अनजाने उस कंटीली प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाना है, जिसकी अंतिम परिणति है सर्वोच्च अंक? एकता, सद्‍भावना, संस्कार, सहिष्णुता और सौहार्द जैसे सुखद शब्दों से रच-पच इस देश के छात्रों में यह कैसा विषैला बीजारोपण है? क्या दे रहे हैं शिक्षक उन्हें? पिछड़ने का भय और पछाड़ने की दक्षता? ऐसे कुंठित और असुरक्षित मानस के चलते कैसे एक स्वतंत्र व्यक्ति के निर्माण, विकास और रक्षण की कल्पना की जा सकती है?

क्यों असमर्थ हैं हम यह शिक्षा देने में कि ‘तुम भी जीतो, मैं भी जीतूं? क्यों नहीं निर्मित कर पा रहे हैं हम वह परिवेश, जिसमें हर विद्यार्थी जीता हुआ अनुभव करे। जीत ईर्ष्या पैदा करती है, हार वैमनस्य। ‘तुम भी जीतो मैं भी जीतूं’ की भावना के पोषण से ही तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का संस्कार जन्म ले सकेगा।

Teachers Day

आपका शिक्षक हूं, जब आप लोगों की आंखों में सपनों के समंदर देखता हूं तो हृदय से कोटि-कोटि आशीर्वाद निकलते हैं। आशीर्वाद की अवस्था नहीं है, पद भी नहीं है, पर न जाने क्यों शिक्षक होने का अनुपम अहसास मात्र ही मुझे ऐसा करने के लिए बाध्य कर देता है।

मैं आपको कई बार डांटता हूँ, क्योंकि मुझे दु:ख होता है जब आपको बंधी-बंधाई लीक पर चलते हुए देखता हूं। उस ‘व्यवस्था’ का शिकार होते हुए देखता हूं, जो सीमित पाठ्‍यक्रम देती है और उसमें से भी महत्वपूर्ण प्रश्नों को रट लेने का सबक देती है।
तब भावनाओं के अतिरेक में मैं बोलता हूं – अनवरत्-अनथक…! ताकि आपके मन के तारों को झंकृत कर सकूं और ओजस्वी बना सकूं।

प्रिय विद्यार्थियों, आप उस युग में जी रहे हैं, जिसमें स्रोतों की प्रचुरता है, आगे बढ़ने के बहुत से द्वार हैं पर याद रखना, छोटी सफलता के छोटे द्वारों के लिए आपका कद बहुत बड़ा है।

प्रतिस्पर्धा की प्रक्रिया में, ऊंचाई की उत्कंठा में और तेजी की त्वरा में यह मत भूलना कि महत्वपूर्ण सफलता नहीं बल्कि वह रास्ता है जिस पर चलते हुए आप उसे हासिल करते हैं। आपने पढ़ा भी होगा कि जो लोग विनम्रता और नेकी के ऊंचे रास्ते पर चलते हैं उन्हें ‘#ट्रैफिक’ का खतरा कभी नहीं होता।

आप मेरे सुयोग्य सुशील विद्यार्थी हैं, मेरे शिक्षक होने का सबसे अहम वजह। यदि प्रथम व्याख्‍यान में आपने धैर्य, अनुशासन और गरिमा का परिचय नहीं दिया होता तो आज मैं कहां होता शिक्षक? मेरी समझ, ज्ञान, वैचारिकता और अभिव्यक्ति आपके बेखौफ, बेबाक प्रश्नों से ही तो समृद्ध और विस्तारित हो सका है।

आपकी प्रफुल्लता ही मेरे अध्यापन की प्रेरणा है। आपकी प्रखर मनीषा और जिज्ञासु संस्कार ही मुझे निरंतर पठन-अध्ययन के लिए उत्साहित करते हैं। आपका स्नेह और सम्मान ही मेरे विश्वास को मजबूती देता है।

आज का दिन हमारा नहीं बल्कि आपका है, आपके ‘कर्तव्य बोध’ पर ही हमारे ‘अस्तित्व बोध’ का प्रश्न टिका है। इस वक्त बहुत-सी काव्य पंक्तियां याद आ रही हैं। क्यों न अटलजी की ये पंक्तियां आपको भेंट करूं?

‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता
मन हारकर मैदान नहीं जीते जाते
न ही मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।’

ईश्वर से प्रार्थना है कि आप मन भी जीतें और मैदान भी…।
शुभकामनाओं सहित,

आपका ही

भरत अल्फा

Bharat Alpha

A simple responsible citizen...

This Post Has 4 Comments

  1. Rajeev nayan Trivedi

    शिक्षकों के प्रेरणा स्रोत के रूप में लिखा गया यह लेख अतिसराहनीय एवं अनुकरणीय है,सिखने और सिखाने की परंपरा में भावनात्मक जोड़ शिक्षा की गुणवत्ता में चार चाँद लगा देता है
    अहो भाग्य ऐसे छात्रों के लिए जिन्हें आप जैसे दूरदर्शी शिक्षक के सानिध्य शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ है
    बहुत बहुत धन्यवाद आपका हार्दिक आभार
    Happy teacher’s day

    1. Bharat Alpha

      बहुत बहुत धन्यवाद महाशय।
      भावनात्मक जोड़ ही तो व्यक्ति को दृढ़ तथा शक्तिशाली बनाता है।
      आजकल ये कम दिखता है। हम बस प्रयास किए हैं, बाकी तो सब कुछ निर्भरता को ही दर्शाता है।

  2. Sanjeev Kumar

    क्या कहूं मैं ? कहने में शायद शब्द कम पर जाए। मैंने सिर्फ और सिर्फ शब्दों के चयन तथा उसके प्रयोग के शैली पर ध्यान दिया है। प्रस्तुत लेख के विषय वस्तु पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया। ओहो! शायद आपने एक शिक्षक और छात्र के मनोभाव को आशीर्वाद के लेखनी से इस पावन दिवस पर उकेरा है। हम्म! हम्म्म!
    यथार्थ बात आपने कही है । एक शिक्षक होने के नाते इस नैसर्गिक भावना को प्रेरित एवम पुनरुत्पन करने के लिए आपका आभारी हूं।
    ….. आपके लेखन कला में और भी निखार आए । ताकि एक” निराला”या “दिनकर” फिर से धरा पर उतर आए।।
    शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभ कामनाओं के साथ
    Sanjeev Kumar
    DAV P School Jhanjharpur

  3. Rajiv kumar

    Namaste sir..
    Happy teachers day
    very nice story
    sundar prastuti

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